वांछित मन्त्र चुनें

प्र तद्वो॑चेयं॒ भव्या॒येन्द॑वे॒ हव्यो॒ न य इ॒षवा॒न्मन्म॒ रेज॑ति रक्षो॒हा मन्म॒ रेज॑ति। स्व॒यं सो अ॒स्मदा नि॒दो व॒धैर॑जेत दुर्म॒तिम्। अव॑ स्रवेद॒घशं॑सोऽवत॒रमव॑ क्षु॒द्रमि॑व स्रवेत् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

pra tad voceyam bhavyāyendave havyo na ya iṣavān manma rejati rakṣohā manma rejati | svayaṁ so asmad ā nido vadhair ajeta durmatim | ava sraved aghaśaṁso vataram ava kṣudram iva sravet ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

प्र। तत्। वो॒चे॒य॒म्। भव्या॑य। इन्द॑वे। हव्यः॑। न। यः। इ॒षऽवा॑न्। मन्म॑। रेज॑ति। र॒क्षः॒ऽहा। मन्म॑। रेज॑ति। स्व॒यम्। सः। अ॒स्मत्। आ। नि॒दः। व॒धैः। अ॒जे॒त॒। दुःऽम॒तिम्। अव॑। स्र॒वे॒त्। अ॒घऽशं॑सः। अ॒व॒ऽत॒रम्। अव॑। क्षु॒द्रम्ऽइ॑व। स्र॒वे॒त् ॥ १.१२९.६

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:129» मन्त्र:6 | अष्टक:2» अध्याय:1» वर्ग:17» मन्त्र:1 | मण्डल:1» अनुवाक:19» मन्त्र:6


बार पढ़ा गया

स्वामी दयानन्द सरस्वती

किनके लिये विद्या देनी चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - मैं (स्वयम्) आप जैसे (हव्यः) स्वीकार करने योग्य (रक्षोहा) दुष्ट गुण, कर्म, स्वभाववालों को मारनेवाला (मन्म) विचार करने योग्य ज्ञान का (रेजति) संग्रह करते हुए के (न) समान (यः) जो (इषवान्) ज्ञानवान् (मन्म) जानने योग्य व्यवहार को (रेजति) संग्रह करता है (तत्) उस उपदेश करने योग्य ज्ञान को (भव्याय) जो विद्याग्रहण की इच्छा करनेवाला होता है उस (इन्दवे) आर्द्र अर्थात् कोमल हृदयवाले के लिये (प्र, वोचेयम्) उत्तमता से कहूँ जो (अस्मत्) हमसे शिक्षा पाकर (वधैः) मारने के उपायों से (निदः) निन्दा करनेहारों और (दुर्मतिम्) दुष्टमतिवाले जन को (अजेत) दूर करे (सः) वह (अवतरम्) अधोमुखी लज्जित मुखवाले पुरुष को (क्षुद्रमिव) तुच्छ आशयवाले के समान (अव, स्रवेत्) उसके स्वभाव से विपरीत दण्ड देवे और (अघशंसः) जो पाप की प्रशंसा करता वह चोर, डाँकू, लम्पट, लबाड़ आदि जन (अव, आ, स्रवेत्) अपने स्वभाव से अच्छे प्रकार उलटी चाल चले ॥ ६ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। अध्यापक विद्वान् जो शुभ गुण, कर्म, स्वभाववाले विद्यार्थी हैं, उनके लिये प्रीति से विद्याओं को देवे और निन्दा करनेहारे चोरों को निकाल देवे और आप भी सदैव धर्मात्मा हो ॥ ६ ॥
बार पढ़ा गया

स्वामी दयानन्द सरस्वती

केभ्यो विद्या देयेत्याह ।

अन्वय:

अहं स्वयं यथा हव्यो रक्षोहा मन्म रेजति न य इषवान् मन्म रेजति तद्भव्यायेन्दवे प्रवोचेयम्। योऽस्मत् शिक्षां प्राप्य वधैर्निदो दुर्मतिं चाजेत सोऽवतरं क्षुद्रमिवावस्रवेत्। योऽघशंसोवास्रवेत् तं वाढं दण्डयेत् ॥ ६ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (प्र) (तत्) उपदेश्यं ज्ञानम् (वोचेयम्) उपदिशेयम् (भव्याय) यो विद्याग्रहणेच्छुर्भवति तस्मै (इन्दवे) आर्द्राय (हव्यः) होतुमादातुमर्हः (न) इव (यः) (इषवान्) ज्ञानवान् (मन्म) मन्तुं योग्यं ज्ञानम् (रेजति) उपार्जति (रक्षोहा) दुष्टगुणकर्मस्वभावहन्ता (मन्म) ज्ञातुं योग्यम् (रेजति) उपार्जति (स्वयम्) (सः) (अस्मत्) (आ) (निदः) निन्दकान् (वधैः) हननैः (अजेत) प्रक्षिपेत्। अत्र व्यत्ययेनात्मनेपदम्। (दुर्मतिम्) दुष्टा चासौ मतिश्च ताम् (अव) वैपरीत्ये (स्रवेत्) गमयेत् (अघशंसः) योऽघं पापं शंसति सः (अवतरम्) अवाङ्मुखम् (अव) (क्षुद्रमिव) यथा क्षुद्राऽऽशयम् (स्रवेत्) दण्डयेत् ॥ ६ ॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः। विद्वान् ये शुभगुणकर्मस्वभावा विद्यार्थिनः सन्ति तेभ्यः प्रीत्या विद्याः प्रदद्यात्। निन्दकान् चोरान् निस्सारयेत् स्वयमपि सदा धार्मिकः स्यात् ॥ ६ ॥
बार पढ़ा गया

माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे. जे शुभ गुण कर्म स्वभावाचे विद्यार्थी असतात. त्यांना अध्यापकांनी प्रेमाने विद्या द्यावी व निंदा करणाऱ्या चोरांना दूर करावे आणि स्वतः सदैव धार्मिक असावे. ॥ ६ ॥